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ताल -मात्रा -लय विवरण

ताल .....भरत मुनि नें संगीत में काल के नापने के साधन को 'ताल ' कहा है । जिस प्रकार भाषा में व्याकरण की आवश्यकता होती है उसी प्रकार संगीत में ताल की आवश्यकता होती है ।   ताल शब्द 'तल'धातु से बना है । संगीत रत्नाकर के अनुसार, जिसमें गीत ,वाद्य और नृत्य प्रतिष्ठित होते हैं वह ताल  है । प्रतिष्ठा का अर्थ होता है....व्यवस्थित करना ,आधार देना या स्थिरता प्रदान करना । तबला ,पखावज इत्यादि ताल-वाद्यों से जब गाने के समय को नापा जाता है ,तो एक विशेष प्रकार का आनंद प्राप्त होता है व वास्तव में ताल संगीत की जान है ,ताल पर ही संगीत  की इमारत खडी हुई है ।      शुभा मेहता    6th ,Jan ,2025

स्वर और समय की दृष्टि से रागों के तीन वर्ग

उत्तर भारतीय संगीत पद्धति में रागों के गानें -बजानें के बारे में  समय -सिद्धांत प्राचीन काल से ही चला आ रहा है । यद्यपि प्राचीन रागों में एवं अर्वाचीन रागों में समय सिद्धांत पर कुछ  मतभेद है । हमारे प्राचीन संगीत पंडितों नें रागों को उनके ठीक समय पर गायन -वादन का सिद्धांत अपने ग्रंथों में स्वीकार किया है ।  स्वर और समय  के अनुसार उत्तर भारतीय रागों के तीन वर्ग मानकर कोमल -तीव्र स्वरों के हिसाब से उनका विभाजन किया गया है ... 1... संघिप्रकाश राग अर्थात कोमल रे और ध वाले राग  2... शुद्ध रे और ध वाले राग  3...कोमल ग और नि वाले राग  1 ..... संघिप्रकाश राग.......इस वर्ग  के रागों में कोमल रे और कोमल ध वाले रागों को रखा जाता है ,साथ  ही इन रागों में ग शुद्ध होना आवश्यक है । दिन और रात की संधि अर्थात मेल होनें के समय को संधिकाल कहते हैं प्रातः सूर्योदय से कुछ पहले और शाम को सूर्यास्त से पहले का कुछ समय ऐसा होता है जिसे न तो दिन कह सकते हैं न ही रात इसी समय को संघिप्रकाश की बेला कहा जाता है । इस बेला में जो राग  गाए -बजाए जाते हैं उन्हे संघिप्रका...